Sunday, September 7, 2014

आज़ादी का लोकगीत गाती चिड़िया..

शहरी कंकरीट के जंगलों में
कुछ चिड़ियाएं बेखौफ़ नहाती हैं
ऐसा लगता है शहरी माहौल में
वे आज़ादी का लोकगीत गाती है...

उनको पानी से खेलता देखकर
बचपन के दिन याद आते हैं
धूल में लोटती और फुदकती
गौरैया का झुंड याद आता है

वह निगेटिव का दौर था
जहां से निकलती थी तस्वीरें
ब्लैक एण्ड ह्वाइट की शक्ल में
धीर-धीरे उनमें रंग घुलने लगे

लेकिन तब भी कैमरे पहुंच के बाहर थे
चिड़िया का शिकार करने वाली बंदूक
किताब के पाठों से चुपचाप निकलकर
मन की कल्पनाओं में घर कर लेती थी

सिद्धार्थ के पाठ को बार-बार दोहराने के बाद भी
मारने वाले से बचाना वाला बड़ा होता है यह भाव
केवल शब्दों का गुलदस्ता बना रहा जिसके अर्थ
कागजी फूलों से ख़ुशबू की तरह नदारद थे
 
आज पानी में नहाती चिड़ियों को देखकर बीते दिन याद आए
धूल में नहाती गौरैया और पानी में नहाती चिड़ियाओं का झुंड
मन की तमाम स्मृतियों को सतह पर वापस छोड़ गया है
कुछ पलों के लिए फिर से जीवन का हिस्सा बनने के लिए

आज़ादी का कोई लोकगीत रचने के लिए
जिसका श्रेय पानी में नहाती चिड़ियों को जाता है
हमने तो बस उस लम्हे की ख़ामोशी को
कुछ शब्द भेंट किए हैं.....

No comments:

Post a Comment