Saturday, August 30, 2014

जो शहर पराया लगता था..

जो शहर पराया लगता था
आज अपना सा लगता है
अज़नबी रास्ते भी आजकल
जरा पहचाने से लगते हैं

जिन गलियों से चुपचाप गुजरते थे कभी
उन गलियों में आज हमराह भी मिलते हैं
गुमनामी के बादल धीरे-धीरे छंट रहे हैं
ऐसा लगता है मानो अज़नबी शाखों से
नए परिचय की तमाम कोंपलें फूट रही हैं...

यह शहर अपनी पहचान बदल रहा है
अज़नबी से धीरे-धीरे परिचित हो रहा है
जो शहर कभी बहुत पराया लगता था
आज अपना बनाने की कोशिश कर रहा है...

2 comments:

  1. अंतर्मन कि आवाज बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  2. बहुत-बहुत शुक्रिया संजय जी.

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