Sunday, January 22, 2017

मतलब का 'मतलब' जानते हैं क्या?

अपनी बात कहते समय छोटे बच्चों को यह ध्यान नहीं रहता कि हम उनकी बात समझ रहे हैं या नहीं। वे एक फ्लो में बस अपनी बात कहते चले जाते हैं। उनके लिए धैर्य के साथ सुनने का भरोसा ही बहुत होता है।

जब हम बड़े बच्चों से बात कर रहे होते हैं तो हम भी इस बात का ख्याल रखना भूल जाते हैं कि वे हमारी बात समझ पा रहे हैं या नहीं।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, "एक स्कूल में आठवीं क्लास के बच्चों को 'मतलब' का मतलब बताना।" हम लोगों के लिए मतलब यानी बड़ी आसान सी बात है। कुछ बच्चों के लिए मतलब की मिनिंग निकालना भी मुश्किल हो सकता है, हमें इस बात को समझना चाहिए।

Sunday, January 8, 2017

हमारी कहानी

जो कहानी तुम्हारी है। वही मेरी भी है। यही कहा था जाते-जाते उसने। उसके शब्दों में सच्चाई थी। उसने कहा कि थोड़ा गुस्सा होना भी स्वाभाविक है। 

हर समय ख़ामोश रहना और हर परिस्थिति में सिर्फ़ सहना ठीक नहीं होता। कभी-कभी जरूरी होता है स्थितियों का विरोध भी....क्योंकि हम इंसान हैं। हम जीवन को जीने लायक बनाते हैं। उलझनों से बाहर निकलने का रास्ता बनाते हैं। 

एक-दूसरे को सहारा देते हैं। साथ होने का अहसास देते हैं क्योंकि पता है कि बहुत सारे रिश्ते औपचारिकताओं के बोझ तले दबे सिसक रहे हैं। कमज़ोर हो रहे हैं। भुरभुरे हो रहे हैं। दरक रहे हैं। अपनी ऊंचाई से नीचे सरक रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में उम्मीदों को ज़िंदा रखना और हौसलों को उड़ान देना जरूरी है ताकि नए दौर में जीवन सफ़र को थोड़ा आसान बनाया जा सके।

पतझड़ के दिन अब नहीं दूर हैं

यह तस्वीर दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ कैंपस की है। जहाँ ट्रांसलेशन वाले कोर्स के दौरान भावी अनुवादकों और साहित्य शोधकर्ताओं के साथ हर शाम चाय की चुस्कियों के साथ कोई न कोई दास्तां लिखा करते थे।

हम शाम कोई न कोई मुद्दा उछलता, उलझता और सुलझता हुआ बातचीत के दरम्यां अपनी जगह पाने को बेताब होता। हम भी बेताब रहते थे, ऐसी शामों के लिए और चाय की चुस्कियों के लिए। 

हवाओं का रुख बदल गया है

हवाओं ने अपना रूख बदल लिया है। अभी हवा में सर्दी का अहसास है, पेड़ के पत्तों के टूटने की आवाज़ है और धूप का कड़क मिजाज थोड़ा मुलायम हो गया है। मगर सर्दी की धूप का हाल देखकर चिंता होती है कि गर्मी के मौसम में धूप का क्या होगा? लोगों का क्या होगा? राजस्थान के कुछ हिस्सों में तो सर्दी बस सुबह और शाम के मेहमान सरीखा हो गई हैं। जो काम करने वाले इंसानों की तरह बस सुबह और शाम अपने घर पर नजर आती है। दिन में लोग टी-शर्ट पहनकर घूमते नजर आते हैं। रात के समय आग के पास बैठे दिखाई देते हैं। रात और सुबह में सर्दी को सम्मान देते हुए भी नजर आते हैं।  

यहां आसपास दिन में पतंग उड़ाते बच्चे नज़र आते हैं। आज पतंगों के ऊपर ढेर सारी बातें लिखने का मन हो रहा था। जैसे हमारी ज़िंदगी भी पतंगों जैसी है। कभी हवाओं से बात करती है। तो कभी जमीन के ऊपर रफ्ता-रफ्ता चलती सी महसूस होती है। कभी हम बेहद सुरक्षित माहौल में जी रहे होते हैं तो दूसरे लम्हे में इतनी आपाधापी होती है कि पतंग की तरह अपनी नश्वरता का बोध हमारे अस्तित्व को झकझोरता सा महसूस होता है। छोटे बच्चों को पतंग उड़ाने की बार-बार कोशिश करते हुए देखकर उनकी लगन का अहसास होता है कि बच्चे जब किसी चीज़ को पूरे मन से करने की ठान लेते हैं तो फिर उसे करके ही मानते हैं।

आज बाज़ार से कच्चे चने लाया ताकि गाँव के खेतों की याद ताज़ा की जा सके। उसे लेकर बच्चों के पास छत पर गया तो उनका कहना था कि इसे तो भूनकर खाने में ज्यादा आनंद है। फिर क्या था? बच्चों ने चने की थैली संभाली और थोड़ी देर में भूनकर छत पर हाजिर हुए। सबने एक साथ भुने हुए हरे चने खाने का आनंद लिया। सालों बाद उस खुशबू से रूबरू हुए जो यादों का हिस्सा बनकर मन के किसी कोने में क़ैद भी। शाम को आग तापते हुए आग में मटर, आलू और गंजी भूनने वाले और मिट्टी के खिलौने पकाकर मजबूत करने वाले लम्हे याद आए। बल्ब की पीली रौशनी से अक्सर मिट्टी के तेल वाली बोतल और उसमें लगी बाती से बनी रौशनी देने वाली देशी लैंप याद आती है, फिर लालटेन और तेज़ रौशनी वाला लैंप याद आता है। जिसके तेल से अक्सर कोई कॉपी या किताब अपने पन्ने को पारदर्शी कर लेती थी। 

ख़ामोशी से बेहतर है कि संवाद के सिलसिले बने रहें। इस विचार को मूर्त रूप में ढालने की कोशिश में यह पोस्ट लंबे इंतज़ार के बाद लिख रहा हूँ। 

आँकड़ों की दीवार

भरभराकर
जब गिरी आंकड़ों की दीवारें
सच्चाईयां जाने क्यूँ
खामोश हो गयीं
लोगों के दर्द और तकलीफ का
मानवीकरण तो न हुआ
लेकिन लोग और उनकी भावनाएं
जरुर नंबरों में बदल गए

परियों का इंतज़ार

उसे इंतजार रहता था
परियों के आने का
बचपन में उसने सुना था
मुश्किल घडी में बच्चों की
मदद को दौड़ पड़ती हैं परियां
उनकी उदासी दूर करने
उनके चेहरों पर मुस्कान का रंग भरने
इसलिए उसे इन्तजार रहता था
परियों के आने का...

Sunday, September 11, 2016

शिक्षा से जुड़ी खबरें पढ़िए 'एजुकेशन मिरर' पर

शिक्षा से जुड़ी समसामयिक मुद्दों पर आलेख व रिपोर्ट्स पढ़ने के लिए एजुकेशन मिरर डॉट ओआरजी पर जा सकते हैं। इस वेबसाइट पर प्राथमिक शिक्षा, भाषा शिक्षण, शिक्षक प्रशिक्षण, विद्यालय प्रबंधन, शिक्षक प्रशिक्षक, बालिका शिक्षा और शिक्षा में नवाचारों से जुड़ी विशेष सामग्री मौजूद है। 

इस वेबसाइट्स पर नए लेखकों को लिखने के लिए प्रोत्साहन भी दिया जाता है। इसलिए अगर आप शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं तो अपने आलेख भी भेज सकते हैं। इसके लिए आप एजुकेशन मिरर का फेसबुक पेज़ लाइक कर सकते हैं।

वेबसाइट का पता है - https://educationmirror.org/

फेसबुक पेज़ करने के लिए  एजुकेशन मिरर पर क्लिक कर सकते हैं।

स्कूलों में साफ-सफाई की उपेक्षा क्यों होती है?

किसी भी स्कूल में बुनियादी सुविधाओं का होना बेहद जरूरी है। इसका अभाव बाकी सारी चीज़ों को प्रभावित करता है। 

इसलिए ऐसी परिस्थितियों पर संवाद का सिलसिला जारी रहेगा, जिनमें सुधार की जरूरत और गुंजाइश है।

स्कूलों में टॉयलेट की सुविधाएं तो हैं। मगर साफ-सफाई की उपेक्षा होने के कारण ऐसी सुविधाओं का उपयोग नहीं हो पा रहा है। ऐसी परिस्थितियों में बदलाव की जरूरत है।

अगर बदलाव की हसरत है तो ऐसे सवालों का सामना करना ही होगा। हम इनसे बच नहीं सकते। इनसे आँख चुराकर निकल नहीं सकते। क्योंकि यह सवाल बच्चों और उनकी ज़िंदगी से सीधे-सीधे जुड़ा है।

Monday, January 5, 2015

बात न करने की कोई मजबूरी सी है...

इस नए साल में उनसे एक दूरी सी है
बात न करने की कोई मजबूरी सी है
उनकी ख़ामोशी देखकर चुप मैं भी हूँ
मेरी बेरुखी देखकर ख़ामोशी वो भी हैं
न वो कुछ कहते हैं न मैं कुछ बताता हूँ
चुपके-चुपके सारा हाल पता चलता है
नए दौर के रिश्तों की है अजब सी यारी
चंद रोज़ की ख़ुशी, उछाह और उल्लास है
उसके बाद तो पूरा चाँद हौले से ढलता है............

Saturday, January 3, 2015

'समाज अपनी राह पर, विज्ञान मंगल ग्रह पर.....'

1) सफलता से पहले तैयारी और कड़ी मेहनत का रहस्य जानने के लिए व्यावहारिक होना होगा। तैयारी का अर्थ परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए फ़ैसले लेने से है। मेहनत का अर्थ यह कतई नहीं है कि आपको खेत में हल चलाना चाहिए औऱ आप सड़क जोत रहे हैं। चीज़ें पुरानी हैं...विचार पुराने हैं,...लेकिन मौलिक सिद्धांत जीवन के पहले जैसे ही हैं....इसलिए बड़ी-बड़ी बातों और विचारों से प्रभावित न हों...वास्तविकता की ज़मीन के करीब रखकर उनका मूल्यांकन करें। समस्याओं को सही तरीके से अप्रोच करने। उनको समझने और समाधान निकालने की नियति से होने वाली कोशिशों से ही कोई हल निकलेगा। 

क्योंकि वर्तमान के व्यावसायिक युग में हर कोई अपने हिस्से का काम दूसरे पर टालना चाहता है,,,,इसके कारण समस्याओं को मजबूत मिलती है और समाधान दूर चला जाता है। उपेक्षित लोगों को और उपेक्षित करने का फॉर्मूला भी समाज में दिखाई देता है....जैसे कोई ट्रेन लेट होती है तो धीरे-धीरे और लेट होती चली जाती है। उसी तरीके से अगर कोई सेक्टर पिछड़ा हुआ है और उससे समाज के प्रबुद्ध तबके का हित प्रभावित नहीं हो रहा है तो उसे ट्रेन की तरह से और लेट होने के लिए और पिछड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसे सरकारी स्कूलों के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी उनकी स्थिति में आख़िर बदलाव क्यों नहीं हो रहा है....क्षणिक परिवर्तन के बाद फिर पुरानी स्थिति क्यों बहाल हो जाती है?

2) मौसम सब्जियां उगाने और दिनचर्या तय करने के लिए होता है। सफलता और असफलता मात्र विचार हैं। इंसान की कोशिशों को नज़रअंदाज करने वाली अवधारणाएं हैं....इसलिए वर्तमान में अंतिम परिणाम की जगह प्रक्रिया पर ध्यान देना चाहिए और इसकी भी तारीफ़ होनी चाहिए। परिणाम अनुकूल न हों तो धैर्य के साथ इंतज़ार करना चाहिए और समय रहते हुए रणनीति या काम करने के तरीके में बदलाव लाना चाहिए।

3)सामाजिक विज्ञान की भारत में स्थिति बहुत बुरी है। समाज अपनी राह पर है और विज्ञान मंगल ग्रह की खाक छान रहा है।

4) कुछ तथाकथित ज्ञानी और विचारशील लोगों ने मानवता को ख़तरे में डालने का पूरा प्रपंच रचा है। वह दौर लद गया जब ज्ञान, दर्शन होता था और दार्शनिकों को ज्ञानी माना जाता था। आजकल तो कारोबार का बोलबाला है,.,...धंधा (व्यक्तिगत लाभ) और सामाजिक विकास एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं।

5) स्वयंसेवा को अमूल्य बताकर मेहनताना मारने की थ्योरी पुरानी हो गई है। इसी तरह की दीर्घकालीन परियोजनाओं के कारण रोज़गार की स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। विशेषज्ञता हासिल किए हुए लोगों को विकसित होने का मौका नहीं मिल रहा है। जैसे जब कोई सलाह देता है कि लोगों को स्कूलों में जाकर कम से कम एक दिन पढ़ाना चाहिए, तो वह स्वयंसेवा को बढ़ावा नहीं देता बल्कि अध्यापकों को नियुक्ति करने की जिम्मेदारी से भागने की कोशिश करता है।